विचारो की अभिव्यक्ति के लिए आप सभी को धन्यवाद आप सभी के विचार ही मुझे प्रोत्साहित करते है!....

मंगलवार, 14 जून 2011

कुछ खास नही ........

कुछ खास नही,फिर भी आस है 
जीवन जिने का उल्लास   है !
हर पल नया कुछ पाते है 
 छोड़ पीछे भी बहुत कुछ जाते है !

ख़ुशियो का तो हम करते है स्वागत 
गम को पीछे छोड़ जाते है !

यही जिंदगी का राज है 
कुछ खास नही,फिर भी आस है
जीवन जिने का उल्लास   है  !!

हर गम से लेते है हम सबक 
कामयाबी पर मानते है ख़ुशी! 

एक छोटे से दुःख से हम 
हो जाते है दुखी : 
लगता है जैसे हो गई जिंदगी बर्बाद !

फिर भी हार नहीं माना है 
क्योंकि संघर्ष करना हमने जाना है !

कुछ खास नही,फिर भी आस है
जीवन जिने का उल्लास   है  !!

ख़ुशी कितनी  भी छोटी क्यों न हो  
 दूर उसे जाने नहीं देते हम  !

गम कितना ही बड़ा क्यों ना हो 
पास उसे आने नहीं देते हम !

बस यही खुबिया ऐसी है जो इंसान
 होने का एहसास दिलाती है !

बहुत कुछ पाने के लिए थोडा
खोने की प्रवृति हमें सिखाती है !

कुछ खास नही,फिर भी आस है
जीवन जिने का उल्लास   है  !

Mani Bhushan Singh

सोमवार, 6 जून 2011

थोडा बहुत लालच

एक  ही शब्द के अनेको अर्थ होते है और यह अर्थ भी मनुष्य स्वयं अपनी सोच के अनुसार बनाता है कई ऐसे शब्द है जिनको हम अनुचित मानते है व् कुछ को उचित लेकिन जिसमे हमारा फायदा होता है उसे हम सही मान लेते है जो हमारे लिए नुकसानदायक उसे हम गलत मान लेते है लेकिन इन् सब में सर्वाधिक आवश्यक हमारी सोच है !क्योंकि इनके अर्थ भी हमारी सोच पर ही निर्भर करती है हम कहते है की "लालच बुरी भला है" वँही दूसरी तरफ "प्रतिस्पर्धा से मनुष्य का विकास  होता है " !प्रतिस्पर्धा को हम उचित मानते है लेकिन लालच को बुरा ! अब यदि हम अपनी सोच को बदले तो प्रतिस्पर्धा में भी लालच है ,क्योंकि लालच के  बिना तो प्रतिस्पर्धा है ही नहीं ! जब मनुष्य में किसी से ज्यादा पाने की ईच्छा होती है तब उसमे लालच का भाव उत्पन होता है तभी उसका विकास होता है अत: मनुष्य में थोडा बहुत तो लालच होना ही चाहिए ,क्योकि इंसान यदि लालच का भाव नहीं रखता है और जितना है उसमे ही संतोष रखता है  तब तो यह प्रक्रति स्थिर हो जाएगी व् विकास  रुक जायेगा!अत: थोडा बहुत तो लालच होना ही चाहिए लेकिन एक सीमा तक !

हर इंसान की सोच अलग होती है उसकी  प्रकृति भी अलग होती है और हर इंसान अपनी  प्रकृति के अनुसार ही कर्म करता  है !एव यह उसके स्वाभाव पर निर्भर करता है वह किस प्रकार का कर्म करता है !तथा उसकी सोच कैसी  है ! हमारे भारत देश में हर किसी को अपने विचारो की अभिव्यक्ति की पूर्णतया स्वंत्रता है !
एव मेरा जंहा तक मानना है तो हम जिस समाज में जीवन व्यतीत कर रहे है यंहा पर 90  % व्यक्ति का कोई भी उद्देश्य बिना लालच के नहीं होता है चाहे हम इसे स्वीकार भले ही नहीं करे  लेकिन सच्चाई तो अस्वीकार नहीं किया जा सकता !
लालच का अर्थ यह नहीं की हम बुरे कर्मो में इसका प्रयोग करे और यह सोच ले की हम तो प्रकृति का विकाश कर रहे है अपितु यदि हम थोडा सा अपनी सोच बदले तो यही लालच हमारा कर्तब्य  बन जायेगा !
जैसे -- यदि कंही पर कोई गलत काम हो रहा है तो हम यह सोचते है की हमें इससे क्या लेना लेकिन यदि हम अपनी सोच को बदलकर ये सोचे की क्या पता ये हमारे साथ भी हो सकता है तब हमें हमारा स्वार्थ का लालच ये गलत काम रोकने पर मजबूर कर देगा ! 
मेरा उद्देश्य किसी भी व्यक्ति विशेष की भावना को ठोश पहुचाना उद्देश्य नहीं है ! यदि किसी की भी भावना आहत होती है तो मै उसके लिए क्षमा प्रार्थी हु  ......

शनिवार, 4 जून 2011

खुशी या दुखी


खुशी एक ऐसा कारण है जिसको पाने की अनवरत कोशिस इन्सान करता रहता है व जब तक उसे खुशी प्राप्त नही होती है व लगातार लगा रहता है !
गम व खुशी दोनो ही ऐसे है जिनके बिना इस जिन्दगी का अस्तित्व  ही सम्भव नही है! अत : जिन्दगी का सन्तुलन बनाए रखने के लिए गम व खुशी दोनो समान रुप से होना  आवश्यक  होता है ! लेकिन हम बचपन से एक कहावत सुनते आ रहे है की ज्यादा खा लेने से  बदहजमी हो जाती है ! इसी प्रकार गम व खुशी भी दोनो का सन्तुलन समान रहन चाहिए नही तो बदहजमी की स्थिति बन जाती है !और बदहजमी की स्थिति मे उल्टिया होने लगती है एव पेटदर्द की शिकायत  व अनेको प्रकार की समस्याये सामने प्रकट होती है जिसका सामना  करने मे मनुष्य स्वयम को असहज महसुस करता है !  
  उसी प्रकार से मनुष्य हताश होने की स्थिति मे अनवरत खुशी पाने की कोशिश मे रहता है ,क्योंकी वह जिन्दगी मे आने वाले गम व परेसानी से तंग आ चुका होता है और यह बात सोलह आने सच् भी है और ऐसा होना भी चाहिए क्योंकी खुश रहना हर मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है ! लेकिन इन् सब मे हम ये भुल जाते है की ज्यादा खुशी पाने के संघर्ष मे हम स्वयम गम को निमन्त्रण देने लगते है और ऐसे परिस्थिति मे मानसिक तनाव ,अनिद्रा इत्यादी व्याग्री से ग्रसित होने लगते है ! एव  जो हमारे पास मे है हम उसका भी सही तरह से उपभोग नही कर पाते है और अधिक खुशी पाने मे अपनी जिन्दगी गम ,दुख ,निराशा को भर लेते है  !
  अत : हर उपभोग की एक सिमा होती है और हमे उस सीमा का पालन करते हुए ही किसी का उपभोग करना चाहिए नही तो  बदहजमी की स्थिति बन जाएगी व खुशी गम का कारण बन जाएगा !!

Mani Bhushan Singh

गुरुवार, 2 जून 2011

मेरा अपना प्यारा गांव


छोटा सा मगर सबसे न्यारा
मेरा अपना प्यारा गांव !
जिसके खेतो मे मै करता
बचपन की अठ्खेलिया !
ताजी हवा जहाँ इठ्लाती थी 
महक दिल मे छोड जाती थी  !
चिडियो का चहचहाना
फुलो का महकना !
आज उसकी याद दिलाता है,
छोटा सा मगर सबसे न्यारा,
मेरा अपना प्यारा गांव !
सौन्धि महक थी जिस मिट्टी की 
रोम रोम मे बस जाती थी !
पुरब की पुरवैया ,
दुध देती गैया 
आज उसकी याद दिलाती है  !
छोटा सा मगर सबसे न्यारा
मेरा अपना प्यारा गांव !
जँहा बिता मेरा बचपन 
बढे बुजुर्गो का पाया प्यार
दादा -दादी  के किस्से 
जिनको सुन मै बड़ा हुआ !
भोर सबेरे खेतो में जाना 
मटर के दानो को 
चोरी करके खाना ,
ये सब मुझे दिलाते है उसकी याद
छोटा सा मगर सबसे न्यारा
मेरा अपना प्यारा गांव !
प्रेम ,समपर्ण,त्याग का भाव 
पाया इसे  मैंने अपने गाँव से

हिन्दु व मुस्लिम  जंहा 
पर रहते दोनों साथ - साथ 
शाम  को होता जंहा अजान
दिन में करते सब माता का गुणगान !
शायद अब ये सब खो गया है!  
ना अब कोई प्रेम से बोलता है 
ना अब कोई किसी को टोकता है! 
सब है अपनी मर्जी  के मालिक 
अब सिर्फ रह गयी तकरार की बारी !
न जाने वो कंहा खो गया है 
छोटा सा मगर सबसे न्यारा
मेरा अपना प्यारा गांव !
इसका कारन कोई न जाने 
शायद हम सब ने मिलकर 
उस सभ्यता को ही मिटा डाली !

   अब तो हर तरफ 
शहर की चकाचौंध है 
अब तो नीला आसमान 
सिर्फ नाम का ही नीला है 
धुए ने उसे बना डाला
 अपना टीला है !
हर तरफ हाहाकार है 
न जाने कौन कौन बीमार है 
बस भाग रहे है भाग रहे है !
न जाने कौन किसके 
पीछे भाग रहे है !
शायद इन् सब में 
मै भी था एक प्रतिभागी 
इस विनाश में बन गया था सहभागी 
दौड़ कर जब मै जब थक गया 
तो हारकर यु  बैठ  गया 
अब करता हू मै अपना विचार 
क्या पाया व् खोया मैंने 
समझ में न आया मेरे !
अब आती मुझे उसकी याद  
छोटा सा मगर सबसे न्यारा
मेरा अपना  सबसे प्यारा गांव !!

Mani Bhushan Singh



बुधवार, 1 जून 2011

पैमाना या अपनी सोच को थोपना


यदि हम कहते है की हमने सब कुछ जान लिया है तो यह कहना क्या उचित होगा !यदि हम किसी को कहते है मै जो तुम्हे बता रहा हू वही सही है और यह गलत है और वह सही है यह कहना तो उचित नहीं होगा आखिर में हम उसे किस पैमाने पर नाप कर या किसी मानक स्तर को मानकर यह सब बाते उसे कह रहे  है ! क्योंकी हमारी  एक  मानसिक  अवधारणा बन चुकी है की हमने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह पर्याप्त  है और वही सही है! और उसी  के आधार पर हम अपना ज्ञान बाटकर किसी को सही तो किसी को गलत कह रहे है ! लेकिन क्या हम कभी उस सक्श से ये कभी पुछते है कि आपने ऐसा क्यो किया! नही क्योंकी यदि हम उससे ये सवाल पुछते है हमारा ज्ञान जो कि एक अभिमान का रुप ले चुका  है उसे कभी स्वीकार नही करने देगा   और कोई निश्चित  तो नही जो आपने ज्ञान प्राप्त किया है वाहि अन्त है और बस उसके बाद और कुछ  नही ! लेकिन यह कहना सर्वथा अनुचित है क्योंकी इस जगत मे कोई ऐसा  नही है जो एक सिमित या मानक स्तर कि परिभाषा दे सके  ! क्योकी हर इन्सान मे कमिया व खुबिया दोनो ही होती है व इस समाज मे कमियो को सामने लाने के लिए किसी सहारे कि जरुरत नही होती है ,लेकिन खुबिओ को सामने लाने के लिए उचित मार्गदर्शन  कि जरुरत होती है !लेकिन यह सब शायद ही सम्भव हो पाता है  क्योंकी इसके कई कारण है जो यह सम्भव नही होने देते  और यह एक सच्चाई भी है जिसे हम स्वीकार करे या ना करे लेकिन यह हमारे समाज मे आज भी है व आगे भी रहेगा ! अत: यदि हम स्वयम के स्वार्थ  को भुलाकर  यदि सच्चे मन से सहायता  करे तो किसी के प्रति किसी के मन मे हीन भावना उत्पन नही होगी ! व ज्ञान का स्तर भी बडेगा !
साथ ही मे यह भी कहना चाहुंगा कि ऐसा भी नही है कि कोई ज्ञान का अर्गन करने वाले से पुछता नही है अवश्य पुछते  है लेकिन कभी -कभी कंही -कंही  पर ही जो कि जो कि नगण्य है  !!
Mani Bhushan Singh